समीक्षा

उत्तर प्रदेश में भा.ज.पा की अप्रत्याशित हार के कारण

यद्यपि भाजपा समर्थकों के लिए यह संतोष का विषय है कि मोदी सरकार ने तीसरी बार सत्ता संभाल ली है ,परन्तु जो लक्ष्य लेकर चुनाव लड़ा गया था, उससे बहुत नीचे मिली सफलता ने आम भाजपाइयों को निराश अधिक किया है। क्या जनता को एक देशभक्त, कर्मठ, विकास पुरुष पसंद नहीं आया? शायद ऐसा नहीं है,लेकिन जिस प्रकार से विरोधी पक्ष की पार्टियों ने प्रचार  किया  वे अपने मिशन में काफी हद तक सफल होते दिखे। कहीं न कहीं संगठनात्मक खामियां भी इस अप्रत्याशित हार के लिए  जिम्मेदार दिखीं। विशेषकर उत्तर प्रदेश के नतीजे तो यही बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने भा.ज.पा को कमजोर किया है। भा.ज.पा में संगठनात्मक खामियों के कारण ही इस तरह के चुनाव परिणाम मिले हैं।

       वर्तमान चुनावों (2024 के लोकसभा चुनाव) के नतीजों ने मुझे झकझोर कर रख दिया है। आखिर ऐसे नतीजे क्यों आए जब मैंने कारणों का अध्ययन और विश्लेषण किया तो जो सामने आया वह कुछ ऐसा था।

*संगठन में  कार्यकर्ताओं को उचित सम्मान नहीं मिलना*
संगठन के उच्च अधिकारी अथवा चुने गए प्रतिनिधि, चुनावों के पश्चात् कार्यकर्ता को अक्सर पहचानते भी नहीं हैं और न ही उनके किसी कार्य में मदद करते हैं। चुनावों के बाद आभार व्यक्त करना भी उचित नहीं समझते। माना कि चुना हुआ प्रतिनिधि प्रत्येक कार्यकर्ता से संपर्क नहीं कर सकता परन्तु निचले स्तर का नेता तो छोटे कार्यकर्ता से संपर्क रख सकता है,उसका हौसला बढ़ा सकता है। उपेक्षा और अनदेखी के कारण कार्यकताओं ने न तो पूरे मन से प्रचार किया न ही समर्पित वोटरों को मतदान केंद्र तक लाने का काम किया।अब क्योंकि कार्यकर्ता का कोई सम्मान नहीं बचा यहां तक कि कोई धन्यवाद के दो शब्द भी नहीं बोलता तो,वह भी उदासीन होकर घर बैठ गया।  वैसे भाजपा का कल्चर माना जाता है कि कार्यकर्ता का पार्टी के लिए योगदान कोई आभार नहीं होता, बल्कि वह विचारधारा  के लिए काम करता है।अब यह उसकी मजबूरी है,कि वह भाजपा के लिए कार्य करे।वह अपने देश को सुशासन देने के लिए अपना योगदान देना चाहता है यही उसका स्वार्थ होता है। जिसका लाभ उच्च पदाधिकारी उठाते है, और साधारण कार्यकर्ता की  उपेक्षा करते हैं।

*मौसम की मार*
चिलचिलाती गर्मी में उपेक्षा का शिकार कार्यकर्ता और भाजपा का समर्पित वोटर दोनों ही बाहर निकलने में कतराते रहे।

*स्थानीय मुद्दों से दूरी*

जनता के स्थानीय मुद्दे समझ पाने में हाई कमान असफल रहा । उसे भनक भी नहीं लग पाई कि जनता में क्या आक्रोश पनप रहा है? जिससे  विरोधी पक्ष को लाभ मिला। यह भी  मंडल स्तरीय कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता का परिणाम रहा,जहां उन्होंने जनता के बीच न तो अपनी बात रखी और न ही उनकी सुनी ।

*सत्ता विरोधी प्रशासन*
कुछ सरकारी अधिकारी वर्तमान सत्ता के विरोधी हैं,उनकी कार्य शैली वर्तमान सरकार को बदनाम करने की  है,  ऐसे अधिकारियों की अति सक्रियता भी भाजपा पर भारी पड़ गयी।

*मंत्रियों की निष्क्रियता*
उत्तर प्रदेश  में सात केन्द्रीय मंत्रियों की हार यही प्रदर्शित करती है, कि उन लोगों ने अपने क्षेत्र की जनता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया। अपने क्षेत्र के विकास के लिए कोई कार्य नहीं किया तथा लंबे समय से पनप रहे जनता के आक्रोश को समझकर उसके निदान का प्रयास नहीं किया। क्योंकि लोकतंत्र में जनता का दुःख दर्द सुनने वाला ही चुनाव जीत सकता है।

*मुआवजे का असंगत वितरण*
ऐसा कह पाना असम्भव लगता है कि संगठन में शीर्ष पर बैठे लोगों को पता नहीं चल पाया  कि बनारस और अयोध्या जहाँ पर अभूतपूर्व विकास कार्य किये जाने के दौरान विस्थापित किये गए परिवार और दुकानदार को दिए जा रहे मुआवजा तर्क संगत थे ।वे उन्हें संतुष्ट कर पाए  या फिर या उनके हितों को हानि पहुंचा कर विकास कार्यों को आगे बढाया गया?यदि समय रहते संगठन इस समस्या को समझ उनका हल निकाल लेता तो बेहतर परिणाम मिल सकते थे।
*आरक्षण समाप्त करने का भ्रम*
चुनावी रैलियों में बार बार नारा दिया गया , ‘अबकी बार चार सौ पार’। विपक्षियों द्वारा इसी नारे को मुद्दा बना कर कहा गया कि, मोदी जी की चार सौ सीटें आने का अर्थ होगा कि संविधान में संशोधन कर आरक्षण समाप्त कर दिया जाए।  भाजपा नेताओं ने स्थानीय तौर पर फैलाये जा रहे  इस भ्रम को समय रहते दूर करने का प्रयास नहीं किया। न  चुनाव से पूर्व किसी बड़े नेता ने इस बात पर कोई स्पष्टीकरण दिया जो भाजपा के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ।

(सत्य शील अग्रवाल- लेखक  शास्त्री नगर, मेरठ उत्तर प्रदेश में 1992 से भाजपा के कार्यकर्ता-भवन प्रभारी, एजेंट, बूथ प्रभारी   के रूप में सक्रिय रहे हैं।)(विभूति फीचर्स)

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