चारधाम की यात्रा पर सपत्नीक गया था। कारण यह कि चौंसठवा साल चल रहा है पत्नी भी साठ साल पार करने वाली है। एक दिन बैठे बैठे सोचा अभी इस उम्र में ही घुटने कमर साथ छोडऩे को तत्पर हैं और बातों बातों में हमने इस यात्रा पर रवाना होने का प्रण कर लिया। स्थानीय यात्रा कंपनी के संचालक जो कि मेरे पूर्व परिचित हैं से फोन लगा कर बात की तो उन्होंने कहा कि भई साब बस चार दिन बाद ही हमारी बस चार धाम के लिए रवाना होने वाली है आप भी तैयारी कर लीजिए उन्होनें सभी शर्तें बता दी तथा उनके द्वारा व्हाट्स एप पर एक छपा हुआ पर्चा जिसमें यात्रा से संबंधित सभी बातों, शर्तों का उल्लेख था।साथ में ले जाने संबंधी सभी बातों का स्पष्ट उल्लेख था। मगर यह भी उल्लेख किया गया था कि आपको बर्तन और बिस्तर साथ लाने की आवश्यकता नहीं है,सो हमने बिस्तर साथ नहीं लिए।पहली रात्रि जब एक धर्मशाला नुमा हॉल में यात्रा रुकी तो देखा कि ग्रामीण क्षेत्र के किसान अपने साथ एक पल्या लेकर आए हैं जो बस के रुकते ही विश्राम के लिए किराए पर लिए हॉल में पंखे के नीचे बिछा कर स्थान घेर लेते और जब तक हम आते तब तक पूरे हॉल में रिक्त स्थान बचता ही नहीं। इस पल्या का निर्माण किसान लोग फसलों में रासायनिक खाद डालने हेतु लाए गए कट्टों (बोरे या बारदाने) से करते हैं। रासायनिक खाद की प्लास्टिक की बोरियों को आपस में सिलकर ये पल्या बनाए जाते हैं जो मेरे जैसे सरकारी नौकरी से सेवा निवृत्त कर्मचारी के लिए तो दूर की कौड़ी ही है।
यह सिलसिला हर रात में चलता हम तो बस एक दरी ले गए थे जो ज्यादा स्थान नहीं घेर पाती थी।
इसी उहापोह में कई दिन बीत गए मन में कई प्रकार के विचार आते। कभी कभी लगता था कि किसी का पल्या चुरा लूं मगर बदनामी का डर भी था काफी सोच समझ कर एक दिन बस में ही सहयात्रियों से हिम्मत कर के पूछ ही लिया कि क्या कोई अपना पल्या बेचना चाहता है मुंह मांगी कीमत दे दूंगा।
सारे किसान मेरे मूर्खता पूर्ण सवाल पर हंस रहे थे, फिर मैनें कहा यार तुम लोग जगह घेर लेते हो इसीलिए हमको सोने के लिए जगह तो कम मिलती ही है गर्मी में पंखे की हवा भी नहीं मिलती। ऐसा लगता था जैसे ओलंपिक खेलों में तो जीता जा सकता है मगर इस गेम में मैं कभी नहीं जीत सकता।
जैसे तैसे मैंने अपनी चारधाम की यात्रा पूरी की । रास्ते में जब भी ट्रैफिक जाम होता सारी रात बसों में गुजरना पड़ती तब मैं मन ही मन प्रसन्न होता क्योंकि पल्या उस दशा में किसी काम नहीं आता बेचारा थैली में पड़ा सुबकता रहता और पल्या मालिक की सूरत देखने लायक होती।
हमारे चेहरे पर विजयी मुस्कान होती चारधाम में पल्या न ले जाने की सजा भले ही हमने भोगी हो मगर किसानों की यह सूझ बूझ मुझे सिखा गई कि यात्रा में और कुछ हो या न हो मगर पल्या तो लेकर चलना ही चाहिए।
(पंकज शर्मा तरुण – विनायक फीचर्स)